साधुओंका संग और सत्शास्त्र का सहारा लेनेसे पापसे बचा जा सकता है । |
मनुष्यको पापसे सदा सावधान रहना चाहिए। जरासे पापको भी सहन करना पापके विशाल वृक्षकी जड़ जमाना
है। मनुष्य जब एक बार पापको स्वीकार करके उसमे फँस जाता है, तब फिर वह दिनोंदिन उसीमे लिपटाताही चला जाता है और आगे चलकर उसीके संगमे सुखका यहाँतक कि कर्तव्यका अनुभव करने लगता है। उसके पापोंकी ऐसी एक दृढ़ और मोहक श्रृंखला बन जाती है जिसके बन्धनसे वह सहज ही कभी छूट नहीं सकता और उसके नये -नये रुपोंपर मोहित होता रहता है।
पाप करते समय अज्ञानवश सुखका बोध होता है। उस समय परिणाम सामने नहीं होता ; परन्तु परंपरासे चली आयी हुई परिणामकी एक कल्पना मनमे होती है जो पापकर्मका सम्पादन करनेके बाद उसे धिक्कारती और डराती है ; परन्तु पाप करते - करते वह कल्पना भी मिट जाती है और पापसे ही गौरव बुद्धि हो जाती है। फिर उसकी बुद्धि सहज ही पुण्यको पाप और पापको पुण्य देखती है। मनुष्यकी यह स्थिति बहुत ही निराशजनक होती है।
इसलिए निरंतर पापियोंके संगसे बचना चाहिये और साधुओंके संग में अपने मनको रंगना चाहिये। साधुओंका संग और सत्शास्त्र का सहारा लेनेसे पापसे बचा जा सकता है ।